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बरगद की छांव

 वे दिन, वे लोग पत्रकारिता जगत के महारथियों ने पत्रकारिता को ऋषिकर्म की तरह जिया।  सत्तर के दशक में साहित्यकार-संपादकों ने हिन्दी पत्रकारिता का नया मुहावरा गढ़ा। हिन्दी पत्रकारिता को समृद्ध करने वाली ‘दिनमान’ पत्रिका में संपादक के रूप में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेयजी की भूमिका निर्णायक रही। पत्रकारिता की तमाम विधाओं में दखल रखने […]
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 वे दिन, वे लोग

अज्ञेय जी के साथ लेखक।

पत्रकारिता जगत के महारथियों ने पत्रकारिता को ऋषिकर्म की तरह जिया।  सत्तर के दशक में साहित्यकार-संपादकों ने हिन्दी पत्रकारिता का नया मुहावरा गढ़ा। हिन्दी पत्रकारिता को समृद्ध करने वाली ‘दिनमान’ पत्रिका में संपादक के रूप में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेयजी की भूमिका निर्णायक रही। पत्रकारिता की तमाम विधाओं में दखल रखने वाले अज्ञेयजी ने एक पीढ़ी के पत्रकारों को निखारा। उनके साथ अर्जित अनुभवों को यहां साझा कर रहे हैं, उनके सहकर्मी रहे वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोक दीप। इस नये साप्ताहिक स्तंभ में श्री दीप के साथ चलिये पुरानी यादों के सफर पर।

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सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन को पत्रकार के रूप में आप कितना जानते हैं, यह सवाल अकसर पूछा जाता है। क्या वह पत्रकारिता की सभी विधाओं से परिचित थे? क्या उन्हें कापी बनानी आती थी, क्या वह गैली पढ़ सकते थे, क्या प्रूफरीडिंग उन्होंने कभी की थी, क्या पेज कभी तैयार किये थे? क्या उन्होंने प्रेस में काम होते कभी देखा था? तमाम ऐसी बाते हैं जिनके बारे में जिज्ञासु पाठक और शायद पत्रकार भी (खासतौर पर नयी पीढ़ी के) जानना चाहते होंगे। मैंने उनके अधीन काम करते हुए वात्स्यायनजी को पत्रकारिता की इन बुनियादी विधाओं से पूरी तरह से न केवल परिचित पाया बल्कि लगता है इन क्षेत्रों में भी उनकी ‘मास्टरी थी। मेरा ‘दिनमान’ से जुड़ाव 1965 से था, यानी शुरू के दिनों से। वात्स्यायनजी की टीम में जब मैं शामिल हुआ था उन दिनों सर्वश्री मनोहर श्याम जोशी, जितेंद्र गुप्ता, श्रीकांत  वर्मा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, श्यामलाल शर्मा, रमेश वर्मा, श्रीमती शुक्ला रुद्र, रामसेवक श्रीवास्तव, योगराज थानी, जवाहरलाल कौल मौजूद थे। मेरे बाद रामवनी आये और उनके बाद प्रयाग शुक्ल। वात्स्यायनजी की टीम की अपनी खासियत थी। इस टीम में कुछ शुद्ध साहित्यकार थे तो कुछ पत्रकारनुमा साहित्यकार, एक विशेषता और थी, कमोबेश विभिन्न भाषाओं, रीतियों, संस्कारों, परंपराओं और सूबों के जानकार भी उनकी टीम में थे ताकि लेखन में मौलिकता और विश्वसनीयता को रेखांकित किया जा सके। जवाहरलाल कौल का संबंध कश्मीर से था तो श्रीमती शुक्ला रुद का बंगाल से और मैं पंजाब से संबंध रखता था। स्वयं वात्स्यायनजी तो सभी विधाओं में पारंगत थे लेकिन कुछ विषयों का जिम्मा उन्होंने अपने कुछ सहयोगियों को दे रखा था जैसे जितेंद्र गुप्त आर्थिक मामले देखा करते थे तो रमेश वर्मा विज्ञान से संबंधित विषयों पर नजर रखते थे, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना साहित्य देखा करते थे तो श्रीकांत वर्मा कला का कॉलम देखने के साथ-साथ विशेष संवाददाता भी थे। श्रीकांत वर्मा से पहले जितेंद्र सिंह विशेष  संवाददाता थे जो उस समय के केंद्रीय मंत्री सत्यनारायण सिन्हा के
दामाद थे।
एक खासियत और थी वात्स्यायनजी की टीम में, मोटे तौर पर तो काम का बंटवारा था लेकिन उनका प्रशिक्षण कुछ इस तरह का था कि जरूरत पडऩे पर हर व्यक्ति हर काम करने की क्षमता रखता था। मनोहर श्याम जोशी उनके सहायक संपादक थे। रघुवीर सहाय शुरू के दिनों में ‘नवभारत टाइम्स’ में विशेष संवाददाता थे। सभी लोग उन दिनों 7, बहादुर शाह रोड के कार्यालय में बैठा करते थे। आज की तरह उन दिनों न तो कंप्यूटर थे और न ही मैटर कंपोजिंग करने वाली मशीनें, सारा काम हैंड कंपोजिंग से होता था। हैंड कंपोजिंग बड़ा पेचिदा काम है। एक-एक शब्द को जोड़कर सामग्री कंपोज होती थी, सामग्री की गैलियां तैयार होती थीं, प्रूफ रीडिंग की जाती थी, पेज तैयार करने की अलग से विधा थी। कहीं पेज कसते समय एक शब्द भी इधर-उधर हो जाता तो सारी मेहनत बेकार हो जाया करती थी। उस समय गैली बनाने वाले और पेज कसने वाले एक्सपर्ट हुआ करते थे, लिहाजा पेज टूटने का काम कभी-कभार ही होता था। जिस मैटर में चित्र लगने होते थे उनके अलग से ब्लाक बना करते थे।
अगले रविवार पढ़े : हरफनमौला व वात्स्यायनजी कैसे चुटकियों में बढ़ी सी बढ़ी समस्याओं का समाधान निकाल लेते थे और अपने सहकर्मियों का दिल जीत लेते थे।

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